Opinion: सरकार के गले की फांस न बन जाए वोडाफोन आइडिया! तैयार रखना होगा एग्जिट प्लान

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नई दिल्ली: सरकार ने भारी कर्ज में डूबी टेलिकॉम कंपनी वोडाफोन आइडिया (Vodafone Idea) के 16,133 करोड़ रुपये से अधिक के ब्याज बकाये को इक्विटी में बदलने की मंजूरी दे दी है। इससे सरकार को करीब 33 फीसदी हिस्सेदारी मिल जाएगी और वह इस कंपनी में सबसे बड़ी हिस्सेदार बन जाएगी। इसका मतलब यह नहीं है कि वोडाफोन आइडिया एक सरकारी कंपनी बन जाएगी। सरकार कंपनी के कामकाज से संबंधित कोई भी फैसला नहीं ले पाएगी। डायरेक्टर्स की नियुक्ति और अन्य अहम फैसले लेने का अधिकार वोडाफोन ग्रुप और आदित्य बिड़ला समूह के पास ही रहेगा। सवाल उठता है कि आखिर ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी कि सरकार को इस कंपनी में हिस्सेदारी खरीदनी पड़ी? एक तरफ सरकार मुनाफा कमा रही पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को बेचने में लगी है और दूसरी तरफ उसने कर्ज में डूबी एक प्राइवेट कंपनी में हिस्सेदारी खरीदी है।

इस समय टेलिकॉम सेक्टर में प्राइवेट सेक्टर की तीन कंपनियां हैं। इनमें मुकेश अंबानी की रिलायंस जियो, सुनील मित्तल की भारती एयरटेल और वोडाफोन आइडिया शामिल हैं। जियो और एयरटेल अपनी 5G सेवाएं शुरू कर चुकी हैं जबकि वोडाफोन आइडिया अब तक ऐसा नहीं कर पाई है। उसके ग्राहकों की संख्या लगातार गिर रही है। जियो ने 2016 में एंट्री मारी थी और आज यह देश की सबसे बड़ी टेलिकॉम कंपनी है। एयरटेल ने जैसे-तैसे खुद को लड़ाई में बचाकर रखा है लेकिन वोडाफोन आइडिया की हालत खराब है। इस कंपनी में ब्रिटेन के वोडाफोन ग्रुप और आदित्य बिड़ला ग्रुप की हिस्सेदारी है।

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2.2 लाख करोड़ का कर्ज

सितंबर तिमाही के अंत में कंपनी पर 2.2 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था जबकि उसके पास ग्रॉस कैश बैलेंस महज 190 करोड़ रुपये था। सरकार ने टेलिकॉम कंपनियों को राहत देने के लिए एक योजना की घोषणा की थी। सरकार चाहती है कि देश में दो से अधिक टेलीकॉम कंपनियां बची रहें और हेल्दी कंप्टीशन के जरिए ग्राहकों को बेहतर सेवा मिलती रहे। यही वजह है कि सरकार ने शॉर्ट टर्म के लिए वोडाफोन आइडिया में हिस्सेदारी लेने का फैसला किया था। शॉर्ट टर्म में कंपनी को सपोर्ट करने के लिए सरकार ने ऐसा किया है। लेकिन देर-सबेर सरकार को कंपनी में अपनी हिस्सेदारी बेचने का रास्ता निकालना होगा।

दुनियाभर मे ऐेसे कई उदाहरण हैं जब सरकारों ने कंपनियों को बर्बाद होने से बचाने के लिए उनमें हिस्सेदारी खरीदी है। इनमें से कई कंपनियां सरकारी हस्तक्षेप के कारण अपने बिजनस को वापस पटरी पर लाने में सफल रहीं। ब्रिटिश सरकार ने देश के बैंकिंग सेक्टर को बचाने के लिए नेटवेस्ट ग्रुप में 45 अरब पौंड का निवेश किया था और बाद में इसमें 84 फीसदी हिस्सेदारी खरीद ली। अब इसे 2025-26 में एक बार फिर निजी हाथों में सौंपने की तैयारी है। इसके लिए चरणबद्ध तरीके से शेयरों की बिक्री की जा रही है।

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तैयार रखना होगा एग्जिट प्लान

इसी तरह ब्रिटेन की सरकार ने 2008 में देश के पांचवें सबसे बड़े मॉर्टेज लेंडर नॉर्दन रॉक को नेशनलाइज्ड किया था। यह वह दौर था जब ग्लोबल मनी मार्केट्स मु्श्किल दौर में था। इस बैंक को दो हिस्सों में बांटा गया। पिछले साल इसे पूरी तरह निजी हाथों में सौंप दिया गया। अमेरिका में सरकार ने ऑटो कंपनी जनरल मोटर्स को 30 अरब डॉलर का पैकेज देकर 60 फीसदी हिस्सेदारी खरीद ली थी। इसके बोर्ड में सरकारी अधिकारी थे लेकिन सरकार ने इसके कामकाज में हस्तक्षेप नहीं किया। 2013 तक अपने अधिकांश शेयर पब्लिक को बेच दिए थे।

वोडाफोन आइडिया के मामले में सरकार ने साफ किया है कि उसकी टेलिकॉम बिजनस को चलाने की कोई मंशा नहीं है। सरकार के सपोर्ट से कंपनी को फंड जुटाने के लिए जरूरी लिक्विडिटी और सपोर्ट मिलेगा। लेकिन सरकार लंबे समय तक कंपनी में नहीं बने रह सकती है। उसके अपने खतरे हैं। संभव है कि आने वाली सरकारें या पॉलिटिकल लीडरशिप इसे पब्लिक सेक्टर कंपनी की तरह ट्रीट करे। ऐसा होता है तो इसका नुकसान टैक्सपेयर्स को भुगतना होगा। इसलिए सरकार को इससे बाहर निकलने के लिए एक रणनीति बनानी होगी और कंपनी के पटरी पर लौटते ही अपनी हिस्सेदारी बेचनी होगी।



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